Friday, 17 February 2017

कब्र से कम जमीं !

सर से पा तक वो गुलाबों का शजर लगता है , 
बा-वज़ू हो के भी छूते हुए डर लगता  है !

मैं तिरे साथ सितारों से गुज़र सकता हूँ , 
कितना आसान मोहब्बत का सफ़र लगता है !

मुझ में रहता है कोई दुश्मन-ए-जानी मेरा ,
 ख़ुद से तन्हाई में मिलते हुए डर लगता है  !

बुत भी रक्खे हैं नमाज़ें भी अदा होती हैं ,
दिल मेरा दिल नहीं अल्लाह का घर लगता है !

 ज़िंदगी तू ने मुझे क़ब्र से कम दी है ज़मीं ,
 पाँव फैलाऊँ तो दीवार में सर लगता है  !

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