Thursday, 18 January 2018

अपने सपने खुलकर देख !!

                     अपने सपने खुलकर देख !!

नये दौर का नया सवेरा
नई धूप की किरण सुहानी
नए नए कोमल पत्तों पर 
भृमरों की खुलकर मनमानी
ये सब दृश्य है मन को भाते
भोर काल मे उठकर देख !
अपने सपने खुलकर देख !

आज गया अब कल आएगा
वक्त का क्या है निकल जायेगा
धर धीरज तप और त्याग तू कर
कुंठितमय मन को साफ तू कर
एक नया सवेरा होगा फिर से
आंखों को तू मलकर देख
अपने सपने खुलकर देख !

कि क्या खोना था और क्या पाना
जीवन जनम मरण है जाना।
कुछ सपने जो सच हो जाते
कुछ सपनों का नहीं ठिकाना
लेकिन हिम्मत हार नहीं तू
फिर भी सपने बुनकर देख
अपने सपने खुलकर देख !


शायद कुछ टूटे बिखरे हैं 
न जाने क्या बात हुई है
गुमसुम हैं चुप्पी साधे है
जैसे कोई आघात हुई है
पागल हो ! बिल्कुल बुद्धू हो
हार जीत की यही रीति है
दुनिया मुट्ठी में आयेगी
एक कदम तो बढ़कर देख !
अपने सपने खुलकर देख !


                               - कवि मुस्तफ़ा 
                             (अनन्य गोविंद शर्मा )
           

Monday, 20 February 2017

बात करता है !

बड़ी मासूमियत से सादगी से बात करता है
मेरा किरदार जब भी जिंदगी से बात करता है

बताया है किसी ने जल्द ही ये सूख जाएगी
तभी से मन मेरा घंटों नदी से बात करता है

कभी जो तीरगी मन को हमारे घेर लेती है
तो उठ के हौसला तब रोशनी से बात करता है

नसीहत देर तक देती है माँ उसको जमाने की
कोई बच्चा कभी जो अजनबी से बात करता है

मैं कोशिश तो बहुत करता हूँ उसको जान लूँ लेकिन
वो मिलने पर बड़ी कारीगरी से बात करता है

खिड़कियों की साज़िशों से ••••••••••••

खिड़कियों की साजिशों से कुछ हवा की ढील से
झोपड़ी जल ही न जाए देखना कन्दील से

एक छोटा ही सही पर घाव देकर मर गई
यूँ वो चिड़िया अन्त तक लड़ती रही उस चील से

तू कचहरी की तरफ चल तो दिया पर सोच ले
फाँस गर निकली तेरी निकलेगी प्यारे कील से

तशरीफ़ लाइए ! तहे दिल से स्वागत है !😊

देखो ! कौन आया है ?

मुहब्बत करसाजी है !

Saturday, 18 February 2017

जो बात मेरे कानों में ख्वाबों ने कही है !

जो बात मेरे कान में ख़्वाबो ने कही है
वो बात हमेशा ही ग़लत हो के रही है ।

जो चाहो लिखो नाम मेरे सब है मुनासिब
उनकी ही अदालत है यहाँ, जिनकी बही है ।

टपका जो लहू पाँव से मेरे तो वो चीख़े
कल जेल से भागा था जो मुजरिम वो वही है ।

वो चाहे मेरी जीभ मेरे हाथ पर रख दे
मैं फिर भी कहूँगा कि सही बात सही है ।

इक दोस्त से मिलने के लिए कब से खड़ा हूँ
कूचा भी वही, घर भी वही, दर भी वही है ।

उम्मीद की जिस छत के तले राही रुका मैं
वो छत ही क़यामत की तरह सिर पे ढही है ।

जो बात मेरे कान में ख़्वाबों ने कही है।